रास्ते में खड़े हैं, उनको दस्त-ए-हिज्र क्या बयां करता
स्याह रात में याद-ए-दिलबर की रोता नहीं तो और क्या करता
उसकी आंखों में था आलम-ए-नूर, मैं अंधेरे से डरता नहीं तो और क्या करता
रक़ीब हो गया मैं उनका, अब राब्ता ना रखता तो और क्या करता
वो ताल्लुक़ तोड़ कर चले गए, ज़िंदगी में तेरा नहीं होता तो और क्या करता
खुले हैं कई दर मेरे लिए, मगर हार कर मैं अपने घर नहीं जाता तो और क्या करता
ये शाम भी ढलने को है, मैं मयख़ाने के रास्ते नहीं जाता तो और क्या करता
हिज्र की रात कितनी लंबी है, मैं मौत के फ़रिश्ते को याद न करता तो और क्या करता
लेखक :- लक्की राठौड़
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